शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

फिर से ये तन भीग जाये ये मन भीग जाये...



साँझ  उगते  ही  रोज  बादल  छाते  हैं
पगली  पवन  के  झोंके  पत्तों  को  सहलाते  हैं
कुछ  बूंदे  यूँ  आएं  की  ये  तन  भीग  जाये
छू  जाएँ  कुछ  यूँ  के  ये  मन  भीग  जाये,

तपती  धूप  की  तपन  से  जल  रही  है  धरती
कुछ  मुरझाये  हुए  फूल  पौधों  की  पत्तियां
थामे  हुए  बैठा  कोई  पपीहा  अपनी  प्यास  को
कुछ  बूंदें  जो  पूरी  कर  दें  उसकी  आस  को,

ना  जाने  कब  से  इंतज़ार  है  कुछ  बूंदों  का
गिरें  पत्तों  से  छनकर  कुछ  बूंदें  यूँ
जिनसे  इस  धरती  की  प्यास  बुझ  जाये
फिर  से  ये  तन  भीग  जाये  ये  मन  भीग  जाये।

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