सावन में जब घनघोर घुमड़कर
काले बादल छाते हैं
प्यासी व्याकुल धरती पर जब
मीठा जल बरसाते हैं
वृक्ष समूह और लताएँ
नए यौवन को पाते हैं
कलरव करते पक्षी-गण जब
झूम-झूम कर गाते हैं
जब-जब बारिश में भीग तेरी
जुल्फों का अंजुम खुल जाता है
कतरा-कतरा बहता पानी जैसे
मदिरा बन जाता है
आँखों के पैमाने तेरे कुछ और
नशीले होते है
कुछ और गुलाबी होते हैं कुछ और
सजीले होते हैं
देख जिन्हे हम
अपने तन की
सारी सुध-बुध खो देते हैं
मेरे मन में कोई
सतरंगी इंद्र-धनुष जाता है खींच
जैसे स्वाती की बूंदों से पगला
चातक करता है प्रीत
सांसों की सरगम पर गाता हूँ
सजनी मेरे मन का गीत।
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