मंगलवार, 1 मार्च 2016

बरसों के बाद भी
















बरसों के बाद भी मुझे अपना सा वो लगा
हर लम्हा उसके साथ में सपना सा एक लगा
खुशी थी मेरी आँखों में खुशी थी उसकी आँखों में
हर  पल  सुहाना  और  मौसम खुश्नुमा लगा,


हर लम्हा कट रहा है उसके इंतज़ार  में
बरसों के बाद भी कभी मिलने की चाह में
ये दिन तो कट रहें हैं मेरे बेकरारी में
रातें गुजर रही मेरी तारों की छाँव में,


थामे हुए खड़ा हूँ वहीं अपने दिल को मैं
एक रोज़ वो गया था जहाँ मुझको छोड़कर
राहों  में उसकी आज भी फिरता हूँ दर-बदर
एक रोज वो गया था जहाँ दिल को तोड़कर,


बसन्त कई आये और आकर चले गये
पतझड़ के साये पर मेरे जीवन से ना गये
ग़मों की साँझ तो मेरे जीवन की ना ढली
खुशियों की सुबह फिर मेरे आँगन में ना खिली,



दीपक जला के रखा है मिलन की आस में
आँखें बरस रही हैं ये मिलन की प्यास में
एक रोज़ मनु आना है उसे मन के गांव में
आँखों में वो बसा मेरी पलकों की छाँव में ।।












********** आस का दीपक *************










4 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे नहीं पता की ये कविता कभी पूरी होगी या नहीं फिर भी ! दिल की बात को एक कलमकार को अपनी कलम से कागज पर उतारना जरुरी था , तो मैंने उतरा।
    मन पर एक बोझ था आज वो हल्का हो गया।

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  2. सामना मुश्किलों का करते गए हम
    इल्ज़ाम हर तरीके का सहते गए हम
    दी थी ताकत उसके ईश्क ने मुझे
    वरना उसे हाँसिल करने की हिम्मत आज तक अपने आप नहीं जुटा सके हम

    किसी दिन ऐसा कोई कविता मत लिख देना यादव जी अगर कुछ् है तो
    हिम्मत जुटा लो

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  3. मैडम अगर समझोते शर्त सहित होते है तो व्यापारिक होते है व्यवहारिक नहीं, समस्या की मूल यही है।

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