इन्द्रेश जी की "बसंत" ऋतु पर अवधी कविता
पंचो,
बसन्त में जब
घर में कन्त
नहीं रहत तो
तो बसन्तो बैरी
जस लागत है/द्याखैं एकु छन्द मा-
बर
वेस विसेस धरे
धरती,
अनमोल छटा दिखलाय रही/
नर-नारिनि के मन माँहि सदा,
वह प्रेम- पयोधि बहाय रही/
भँवरा गुलजार करैं बगिया,
अरु कोयल कूक सुनाय रही/
बरि जाय बसन्त न कन्त घरै,
बिरहा तन पीर जगाय रही/
अनमोल छटा दिखलाय रही/
नर-नारिनि के मन माँहि सदा,
वह प्रेम- पयोधि बहाय रही/
भँवरा गुलजार करैं बगिया,
अरु कोयल कूक सुनाय रही/
बरि जाय बसन्त न कन्त घरै,
बिरहा तन पीर जगाय रही/
इन्द्रेश भदौरिया*रायबरेली*
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